शास्त्रीय नृत्य (Shastriya Dance)
भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये नृत्य रूप प्राचीन ग्रंथों, विशेषकर नाट्य शास्त्र पर आधारित होते हैं और इनका गहरा संबंध धर्म, संगीत, अभिनय और भाव-भंगिमा से होता है।
✨ शास्त्रीय नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
संगीत, ताल और राग:
शास्त्रीय नृत्य संगीत के साथ गहरे रूप से जुड़ा होता है, जिसमें राग (melody) और ताल (rhythm) का उपयोग होता है। हर नृत्य शैली में अलग-अलग ताल और राग होते हैं, जो नृत्य के भावों को प्रकट करते हैं। -
हस्त मुद्राएँ (Mudras):
शास्त्रीय नृत्य में नर्तक हस्तकला (hand gestures) का प्रयोग करते हैं, जिसे अंगिका कहा जाता है। विभिन्न हस्त मुद्राएँ नृत्य के कथ्य को व्यक्त करने के लिए काम आती हैं। ये मुद्राएँ देवी-देवताओं के प्रतीक या भावनाओं को व्यक्त करने में मदद करती हैं। -
अभिनय (Abhinaya):
शास्त्रीय नृत्य में अभिनय की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नर्तक अपने चेहरे के भाव (expressions), आंखों के हाव-भाव, और शरीर की मुद्रा से कथाएँ और भावनाएँ व्यक्त करते हैं। विशेष रूप से भाव और अभिनय (Abhinaya) नृत्य की कला में अहम होते हैं। -
सौम्यता और संतुलन (Grace & Balance):
शास्त्रीय नृत्य में सौम्यता और संतुलन पर खास ध्यान दिया जाता है। नर्तक की शारीरिक स्थिति, मुद्राएँ, और नृत्य की गति बहुत ही नियंत्रित होती हैं, जिससे एक अद्वितीय सौंदर्य का निर्माण होता है। -
पारंपरिक और धार्मिक कथाएँ:
शास्त्रीय नृत्य की प्रमुख विशेषता यह है कि यह धार्मिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित होता है। नृत्य के द्वारा भगवान की लीलाएँ, महाकाव्य कथाएँ और धार्मिक शिक्षाएँ प्रस्तुत की जाती हैं। -
संगठित संरचना:
शास्त्रीय नृत्य में नृत्य की संरचना चार प्रमुख हिस्सों में बटी होती है:-
Alarippu: एक प्रारंभिक अभ्यास जिसमें शारीरिक लचीलापन बढ़ाया जाता है।
-
Jatiswaram: नृत्य का एक शुद्ध संगीतात्मक हिस्सा।
-
Varnam: मुख्य नृत्य प्रदर्शन जिसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का सम्मिलन होता है।
-
Tillana: नृत्य का एक तेज़ और आकर्षक हिस्सा, जो खत्म होने के करीब होता है।
-
-
पोशाक और आभूषण:
शास्त्रीय नृत्य में कलाकारों की पोशाक बहुत ही विशिष्ट होती है। पारंपरिक कपड़े, विशेष आभूषण और श्रृंगार नृत्य के सौंदर्य में चार चांद लगा देते हैं। प्रत्येक नृत्य शैली की अपनी पारंपरिक पोशाक होती है, जो कलाकार के व्यक्तित्व और कला को और भी आकर्षक बनाती है। -
स्थानीय परंपराएँ और शैलियाँ:
भारत में अलग-अलग क्षेत्रीय शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ हैं, जिनमें हर क्षेत्र की संस्कृति और इतिहास की झलक मिलती है।
-
सांस्कृतिक धरोहर: शास्त्रीय नृत्य भारतीय संस्कृति और परंपराओं की जीवित मिसाल है, जो न केवल कला का रूप है, बल्कि भारतीय समाज, धार्मिकता, और दर्शन का गहरा संकेत भी है।
-
आध्यात्मिक अभिव्यक्ति: यह नृत्य कला ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में उपयोग होती है, खासकर मंदिरों और धार्मिक अनुष्ठानों में।
-
शारीरिक और मानसिक लाभ: शास्त्रीय नृत्य शरीर को लचीला और सशक्त बनाता है, साथ ही मानसिक शांति और एकाग्रता को बढ़ावा देता है।
भारत में मान्यता प्राप्त प्रमुख 8 शास्त्रीय नृत्य रूप हैं:
-
भरतनाट्यम (Bharatanatyam) – तमिलनाडु से
-
कथक (Kathak) – उत्तर भारत से
-
ओडिसी (Odissi) – ओडिशा से
-
मोहिनीअट्टम (Mohiniyattam) – केरल से
-
कुचिपुड़ी (Kuchipudi) – आंध्र प्रदेश से
-
कथकली (Kathakali) – केरल से
-
सत्रिया (Sattriya) – असम से
-
मणिपुरी (Manipuri) – मणिपुर से
भरतनाट्यम (Bharatanatyam)
भारत का सबसे प्राचीन और प्रमुख शास्त्रीय नृत्य रूप माना जाता है। यह मुख्य रूप से तमिलनाडु राज्य में उत्पन्न हुआ और पहले इसे मंदिरों में देवदासियों द्वारा भगवान की पूजा के रूप में प्रस्तुत किया जाता था।
भरतनाट्यम की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
प्राचीनता और धार्मिकता:
यह नृत्य देवी-देवताओं की कथाओं को प्रस्तुत करता है। इसे भक्तिपूर्ण नृत्य माना जाता है। -
त्रिक (Bha-Ra-Ta):
इसका नाम 'Bharat' शब्द से बना है:-
Bha = भाव (Expression)
-
Ra = राग (Melody)
-
Ta = ताल (Rhythm)
-
-
अभिनय पर जोर:
चेहरे के भावों और आंखों की मुद्राओं से कहानी सुनाई जाती है। -
हस्त मुद्राएं:
हाथ की मुद्राओं (मुद्राएं) से प्रतीकात्मक अर्थ प्रकट किए जाते हैं। -
स्थिर और नियंत्रित अंग संचालन:
इसमें शरीर की भंगिमा बहुत नियंत्रित और संतुलित होती है। -
पारंपरिक पोशाक और आभूषण:
रंग-बिरंगे रेशमी परिधान, पारंपरिक गहने, माथे पर टिकली, और आंखों का खास मेकअप। -
नाट्य शास्त्र पर आधारित:
इसकी संरचना और प्रदर्शन पूरी तरह भरत मुनि के नाट्य शास्त्र पर आधारित है।
प्रसिद्ध भरतनाट्यम कलाकार (Pramukh Kalakar):
-
रुक्मिणी देवी अरुंडेल – भरतनाट्यम को मंच पर पुनर्जीवित करने में अग्रणी।
-
यामिनी कृष्णमूर्ति – प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्यांगना, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुति दी।
-
मृणालिनी साराभाई – नृत्य, नाटक और संस्कृति की महान प्रतिनिधि।
-
मलविका सारुकाई – समकालीन शैली के साथ पारंपरिक भरतनाट्यम प्रस्तुत करने वाली नृत्यांगना।
-
बिरजू महाराज – यद्यपि वे कथक कलाकार थे, पर भरतनाट्यम के प्रचार में भी योगदान दिया।
कथक (Kathak)
भारत का एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य रूप है, जिसकी उत्पत्ति उत्तर भारत में हुई थी। "कथक" शब्द "कथा कहने वाला" से लिया गया है — यानी जो नृत्य और भावों के माध्यम से कहानी कहे।
✨ कथक की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
कथा-प्रस्तुति (Storytelling):
कथक में कहानी सुनाने की परंपरा है — खासकर रामायण, महाभारत, और कृष्ण लीला की कथाएं। -
चक्कर (Pirouettes):
कथक में सबसे प्रसिद्ध तकनीक है – तेज गति से घूमना। यह इसकी पहचान है। -
घुंघरू (पायल):
कथक नर्तक घुंघरू बांधते हैं, जिससे हर कदम की लय सुनाई देती है। -
ताल और लय (Rhythm):
कथक में तालों का जादू होता है — बहुत कठिन और सटीक लय में नृत्य होता है। -
अभिनय और भाव (Expression):
चेहरे के भाव और आंखों से संवाद करना, विशेष रूप से कृष्ण राधा की लीलाओं में। -
हिंदू-मुस्लिम प्रभाव:
यह एकमात्र शास्त्रीय नृत्य है जिसमें मुगल दरबार का भी प्रभाव है, इसलिए इसमें गायन और तबले का इस्तेमाल बहुत होता है। -
तीन घराने (Styles):
-
लखनऊ घराना
-
जयपुर घराना
-
बनारस घराना
हर घराने की अपनी खासियत होती है – कोई अभिनय में श्रेष्ठ है तो कोई तालों में।
-
प्रसिद्ध कथक कलाकार (Pramukh Kalakar):
-
पंडित बिरजू महाराज – कथक के सबसे महान कलाकार, लखनऊ घराने से।
-
शंभू महाराज – बिरजू जी के गुरु और कथक को मंचीय रूप देने वाले महान कलाकार।
-
सोनाल मानसिंह – प्रसिद्ध नृत्यांगना, जिन्होंने कथक और ओडिसी दोनों में महारत हासिल की।
-
शोवना नारायण – समकालीन कथक की प्रमुख कलाकार।
-
माया राव – कर्नाटक की पहली कथक नृत्यांगना, जिन्होंने इसे दक्षिण भारत में लोकप्रिय किया।
मणिपुरी नृत्य (Manipuri Dance)
भारत का एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य रूप है, जिसकी उत्पत्ति मणिपुर राज्य में हुई। यह नृत्य अपने कोमलता, भक्ति भावना और सौम्य भाव-भंगिमाओं के लिए प्रसिद्ध है।
✨ मणिपुरी नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
भक्ति प्रधान नृत्य:
यह नृत्य रूप विशेष रूप से राधा-कृष्ण की लीलाओं और वैष्णव भक्ति पर आधारित होता है। -
कोमल और लयबद्ध गति:
इसमें भरतनाट्यम या कथक की तरह तीव्र गति या चटख भंगिमाएं नहीं होतीं। इसकी चाल बहुत मृदुल, गोलाकार और सौम्य होती है। -
मुख भाव (Abhinay) का सूक्ष्म प्रयोग:
चेहरे के हाव-भाव बहुत नरम और संयमित होते हैं। आंखों का नाटक बहुत नाजुक ढंग से होता है। -
विशेष पोशाक:
स्त्रियों की पोशाक बहुत सुंदर और अनोखी होती है — जिसे "कुमीन" कहा जाता है। इसमें बेलनाकार घाघरा, पारदर्शी घूंघट और गहनों का खास संयोजन होता है। -
नृत्य और संगीत का मेल:
इसमें मृदंग, पखावज और मंजीरा जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है। गायन भी बहुत ही भक्तिपूर्ण और शुद्ध होता है। -
रासलीला की प्रमुखता:
मणिपुरी नृत्य में रासलीला को बहुत महत्व दिया जाता है, जिसमें कृष्ण और गोपियों की लीलाएं दर्शाई जाती हैं। -
संघटनात्मक समूह नृत्य:
यह नृत्य अक्सर समूहों में किया जाता है, विशेषकर रासलीला प्रस्तुतियों में।
👩🎤 प्रसिद्ध मणिपुरी कलाकार (Pramukh Kalakar):
-
राजकुमारी बाला देवी चौधुरी – मणिपुरी नृत्य को मंच पर लोकप्रिय बनाने वाली अग्रणी कलाकार।
-
डॉ. सिंहजीत सिंह – प्रसिद्ध नर्तक और मणिपुरी नृत्य शिक्षक।
-
चुकीन देवी – समर्पित नृत्यांगना जिन्होंने रासलीला प्रस्तुतियों में विशिष्ट पहचान बनाई।
ओडिसी नृत्य (Odissi Dance)
भारत का एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है, जिसकी उत्पत्ति ओडिशा राज्य से हुई है। यह नृत्य रूप अपनी सुखद, लयबद्ध गति, अद्भुत मुद्राओं, और सौम्यता के लिए प्रसिद्ध है। ओडिसी नृत्य की विशेषताएँ न केवल इसकी सुंदरता में निहित हैं, बल्कि इसके धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व में भी गहरी जड़ें हैं।
ओडिसी नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
प्राचीन परंपरा:
ओडिसी नृत्य की जड़ें प्राचीन मंदिर नृत्य परंपराओं में हैं। यह नृत्य भगवान विष्णु और अन्य देवताओं की पूजा के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। -
त्रिवटि मुद्रा (Tribhanga):
ओडिसी नृत्य की सबसे प्रसिद्ध विशेषता त्रिवटि मुद्रा है, जिसमें नर्तकी अपने शरीर को तीन जगहों पर मोड़ती है—गर्दन, कमर, और पैर। यह मुद्रा नृत्य को सुंदरता और संतुलन देती है। -
अलंकृत मुद्राएँ (Mudras):
ओडिसी में हस्त मुद्राओं (मुद्राओं) का महत्वपूर्ण प्रयोग होता है, जिन्हें "अंगिका" के नाम से जाना जाता है। इन मुद्राओं से भगवान की कथाएँ और भावनाएँ व्यक्त की जाती हैं। -
नृत्य और संगीत का सामंजस्य:
ओडिसी में मृदंग (पारंपरिक ओडिशी ढोल), झांझ, और सांगीतिक वाद्य जैसे सारंगी का प्रयोग होता है। इसके संगीत में राग और ताल का गहरा संबंध है। -
रासलीला और भक्तिपूर्ण प्रदर्शन:
ओडिसी नृत्य में कृष्ण-राधा की लीलाएँ और भगवान विष्णु के विभिन्न रूपों की कथाएँ प्रदर्शित की जाती हैं। नर्तक रासलीला और नृत्य नाटिका के माध्यम से धार्मिक कथाओं को प्रस्तुत करते हैं। -
संगठित नृत्य रूप (Group and Solo Performance):
ओडिसी में समूह नृत्य और एकल नृत्य दोनों की परंपरा है। विशेष रूप से महाभारत और रामायण की घटनाओं को नृत्य के माध्यम से दर्शाया जाता है। -
लय और गति:
ओडिसी की नृत्य शैली में लयबद्धता और गति का महत्वपूर्ण योगदान है, जहां धीमी, मध्यम और तेज गति का संतुलन होता है।
👩🎤 प्रसिद्ध ओडिसी कलाकार (Pramukh Kalakar):
-
कलावती देवी – ओडिसी की प्रसिद्ध नर्तकी, जिन्होंने ओडिशी नृत्य को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचान दिलाई।
-
सोनल मानसिंह – प्रसिद्ध नृत्यांगना, जिन्होंने ओडिसी नृत्य को व्यापक रूप से लोकप्रिय बनाया।
-
मृणालिनी साराभाई – ओडिसी नृत्य की महान कलाकार, जिन्होंने ओडिशी नृत्य को भारत और विदेशों में प्रस्तुत किया।
-
श्रीमती कुमुदिनी लक्ष्मी – ओडिसी नृत्य की प्रमुख विद्वान और गुरु, जिनकी नृत्य शैली को सभी ने सराहा।
कुचिपुड़ी नृत्य (Kuchipudi Dance)
भारत के शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक है, जो आंध्र प्रदेश राज्य से उत्पन्न हुआ है। यह नृत्य अपनी विशेष भाव-भंगिमा, गति और लय के कारण बहुत प्रसिद्ध है। कुचिपुड़ी का प्रदर्शन नृत्य, अभिनय, और संगीत का संगम होता है, और इसमें धार्मिक कथाएँ और संस्कृति को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जाता है।
कुचिपुड़ी नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
अभिनय का महत्त्व (Abhinaya):
कुचिपुड़ी में नर्तक को केवल नृत्य ही नहीं, बल्कि अभिनय भी करना होता है। इसमें चेहरे के भाव, आँखों की मुद्राएँ और शरीर की हलचलें महत्वपूर्ण होती हैं। यह नृत्य कथा को बहुत ही प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करता है, जैसे भगवान की लीलाएँ या शास्त्रों की घटनाएँ। -
"तलम" (Talam):
कुचिपुड़ी में ताल और लय पर बहुत ध्यान दिया जाता है। नर्तक तेज गति से पैरों के साथ ताल को सेट करने में माहिर होते हैं, जिससे नृत्य में एक अद्वितीय लयबद्धता उत्पन्न होती है। -
मंच पर पदार्पण (Entrance) और पूजन:
कुचिपुड़ी नृत्य का एक अद्वितीय पहलू इसका मंच पर प्रवेश है, जिसमें नर्तक पहले पूजा करता है और फिर मंच पर अपने नृत्य की शुरुआत करता है। इस पूजा का उद्देश्य नृत्य को ईश्वर की भक्ति के रूप में प्रस्तुत करना होता है। -
भव्यता और गति (Grace & Speed):
कुचिपुड़ी नृत्य में मुलायम और कोमल गति के साथ-साथ तेज गति के तत्व भी होते हैं, जो इसे बहुत आकर्षक बनाते हैं। विशेष रूप से मुद्राएँ (हस्तकला) और अंग संचालन का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता है। -
मंच पर संवाद (Dialogue or Dialogue-based Acting):
कुचिपुड़ी में संवादों के माध्यम से नृत्य की कथा को चित्रित किया जाता है। इस तरह के संवाद अक्सर वचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में होते हैं, जो नृत्य के साथ मेल खाते हैं। -
नृत्य रूप और संगीत:
कुचिपुड़ी में कर्णाटिक संगीत का प्रमुख योगदान होता है। इसमें मृदंगम, वीणा, चंग, तबला, और अन्य वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है। यह संगीत नृत्य को गति और जीवन देता है। -
नृत्य में त्रिक (Three-fold) का महत्व:
कुचिपुड़ी नृत्य में तीन महत्वपूर्ण तत्व होते हैं:-
नृत्य (Dance): शारीरिक गति और लय।
-
गीत (Song): संगीत और काव्य।
-
नाटक (Drama): अभिनय और संवाद
-
कथकली (Kathakali)
भारत का एक प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य रूप है, जो विशेष रूप से केरल राज्य से संबंधित है। यह नृत्य रूप अपने भव्य प्रदर्शन, जीवंत रंगीन पोशाक, और अद्भुत अभिनय के लिए प्रसिद्ध है। कथकली नृत्य केवल एक नृत्य नहीं है, बल्कि यह नृत्य, संगीत, अभिनय, और दृश्य कला का मिश्रण होता है। इसमें कलाकार अपनी भावनाओं और कथाओं को व्यक्त करने के लिए अपने शरीर और चेहरे के भावों का अत्यधिक उपयोग करते हैं।
कथकली नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
महाकाव्य और धार्मिक कथाएँ:
कथकली मुख्य रूप से रामायण, महाभारत, और पुराणों से ली गई कथाओं का प्रदर्शन करती है। इन कथाओं में भगवान के विभिन्न रूपों, उनके आदर्शों और संघर्षों को प्रस्तुत किया जाता है। -
भव्य पोशाक और मेकअप:
कथकली कलाकारों की पोशाक और मेकअप बहुत रंगीन और भव्य होते हैं। विशेष रूप से चेहरे का मेकअप (पेंटिंग), आंखों की भारी सजावट, और रंगीन वस्त्र इसे अत्यधिक प्रभावशाली बनाते हैं। कलाकारों के अंगों और चेहरे की प्रत्येक अभिव्यक्ति का गहरा अर्थ होता है, जो पूरी कथा को जीवंत बना देता है। -
अभिनय और भाव-भंगिमा (Expression):
कथकली नृत्य में आंखों का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण होता है। कलाकार अपनी आंखों और चेहरे के हाव-भाव से पूरी कथा और भावनाओं को व्यक्त करते हैं। इसके अलावा, हाथ की मुद्राएं (हस्तकला) और शरीर की गति के माध्यम से भी कथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं। -
संगीत और वाद्ययंत्र:
कथकली में मृदंगम (एक प्रकार का ढोल), चेंडा (एक प्रकार का ढोल), इलात्तलम (एक प्रकार का घंटी), और झांझ जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है। साथ ही, काव्य गायक और संगीतकार भी इसका हिस्सा होते हैं, जो नृत्य के साथ मिलकर पूरी प्रस्तुति को जीवंत करते हैं। -
चरणों और मुद्रा की जटिलता:
कथकली में नृत्य की मुद्राएं और चरण बहुत जटिल होते हैं। शारीरिक गठन और ताल की गहरी समझ नर्तक को नृत्य में विशेष निपुणता प्रदान करती है। विशेष रूप से शरीर की मुद्रा और हाथ की मुद्रा नृत्य को अभिव्यक्तिपूर्ण बनाती है। -
नारी पात्र का चित्रण:
कथकली में पुरुष कलाकार महिला पात्रों का अभिनय करते हैं, और उनका मेकअप तथा पोशाक पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक विस्तृत और जटिल होता है। रुक्मिणी, सीता, और द्रौपदी जैसे पात्रों का अभिनय
मोहिनियाट्टम (Mohiniyattam)
, केरल का एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य रूप है, जो अपनी सौम्यता, नारीत्व और भावनात्मक गहराई के लिए प्रसिद्ध है। यह नृत्य शैली विशेष रूप से महिला नर्तकियों द्वारा प्रस्तुत की जाती है और यह नृत्य का एक नारी-प्रधान रूप माना जाता है।
मोहिनियाट्टम की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
नारीत्व की अभिव्यक्ति:
मोहिनियाट्टम में नृत्य का हर कदम और मुद्रा नारी के सौंदर्य, आकर्षण, और प्रेमपूर्ण भावनाओं को व्यक्त करता है। यह नृत्य मुख्य रूप से संतुलन, कोमलता और लयबद्धता के साथ किया जाता है, जो इसे अत्यंत सुंदर और आकर्षक बनाता है। -
शारीरिक मुद्रा और हल्की गति:
मोहिनियाट्टम की शैली में पैरों की धीमी और कोमल गति होती है। नर्तकी के कदम मुख्य रूप से धीमे और नियंत्रित होते हैं, जिससे नृत्य में एक स्थिरता और संतुलन का अहसास होता है। नर्तकी अपने शरीर को नर्म और आकर्षक ढंग से घुमाती है, जो इस नृत्य को सौम्य और सजीव बनाता है। -
हस्तकला और भावनाएँ (Abhinaya):
मोहिनियाट्टम में हस्त मुद्राएँ (mudras) और चेहरे के भाव (facial expressions) का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। नर्तकी के चेहरे के हाव-भाव, आंखों का नृत्य, और हाथ की मुद्राएँ कथा को जीवंत बनाती हैं। यह नृत्य शैली विशेष रूप से भावनाओं की अभिव्यक्ति (Abhinaya) पर जोर देती है, जैसे कि प्रेम, भक्ति, और शांति। -
संगीत और वाद्य यंत्र:
मोहिनियाट्टम में कर्णाटिक संगीत का उपयोग होता है, जिसमें वायलिन, मृदंगम, झांझ, और चेंडा जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल होता है। संगीत की लय और ताल नृत्य को गति और भावनाओं का समर्थन प्रदान करते हैं। -
शारीरिक स्थिति (Posture):
मोहिनियाट्टम में नर्तकी की पैठी मुद्रा (Seated posture) महत्वपूर्ण होती है, जो उसे स्थिरता और लचीलापन प्रदान करती है। नर्तकी अपने पैरों को एक विशेष तरीके से रखती है, जिसे अदवित्तम् कहा जाता है। इस मुद्रा में नर्तकी की शारीरिक स्थिति बहुत ही संतुलित और शांत होती है, जो नृत्य को सौम्यता और परिपूर्णता देती है।
सत्रिया (Sattriya)
नृत्य भारत के असम राज्य का एक पारंपरिक और शास्त्रीय नृत्य रूप है, जिसे विशेष रूप से सत्रों (धार्मिक आश्रमों) में पूजा और भक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह नृत्य रूप शैववाद और विष्णुवाद के धार्मिक तत्वों से प्रेरित है, और इसमें एक गहरी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति होती है। सत्रिया नृत्य में संगीत, नृत्य और अभिनय का मिश्रण होता है।
सत्रिया नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):
-
धार्मिक और आध्यात्मिक भावनाएँ: सत्रिया नृत्य भगवान विष्णु और उनके अवतारों की पूजा और भक्ति से संबंधित होता है। इसमें विशेष रूप से राम, कृष्ण, और अन्य भगवानों की लीलाओं को नृत्य के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। यह नृत्य रूप भक्ति, ध्यान, और आध्यात्मिकता की गहरी अभिव्यक्ति है।
-
नृत्य और अभिनय का मिश्रण: सत्रिया नृत्य में नर्तक न केवल शारीरिक गति करते हैं, बल्कि वे अभिनय और भावों के माध्यम से कथाएँ भी प्रस्तुत करते हैं। अभिनय (Abhinaya) की बड़ी भूमिका होती है, जिसमें नर्तक अपने चेहरे के हाव-भाव, आँखों की मुद्रा, और हाथों की मुद्राओं के माध्यम से कथा को जीवंत बनाते हैं।
-
नृत्य की लय और गति: सत्रिया नृत्य की गति धीमी से तेज़ होती है। इसमें अलरीप्पु (आधिकारिक शुरुआत) और जति (Jati) जैसे विभिन्न चरण होते हैं। नृत्य की लय के साथ-साथ ताल का सटीक पालन किया जाता है, और नर्तक के शरीर की लचीलापन और संतुलन पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
-
हस्त मुद्राएँ (Mudras): सत्रिया नृत्य में हस्तकला का महत्व बहुत होता है। हाथों की मुद्राएँ (Mudras) नृत्य के भावों और कथाओं को प्रकट करने का मुख्य तरीका होती हैं। इन मुद्राओं के माध्यम से नर्तक भगवानों की अभिव्यक्ति, प्राकृतिक तत्वों, और सांस्कृतिक प्रतीकों को दर्शाते हैं।
-
संगीत और वाद्ययंत्र: सत्रिया नृत्य में संगीत का अहम योगदान होता है, जिसमें भक्ति गीत और अवधी भाषाओं के काव्य का प्रयोग किया जाता है। संगीत का मुख्य आधार सोलोवाद्य (जैसे मृदंगम और घंटा) और गायक होते हैं। नृत्य के प्रत्येक चरण में संगीत के साथ ताल और राग की गहरी संगति होती है।
-
पोशाक और श्रृंगार: सत्रिया नृत्य में सामान्यतः पुरुष नर्तक होते हैं, जो पारंपरिक पोशाक पहनते हैं। ये पोशाक अक्सर सफेद होते हैं, जो पारंपरिक असमिया शैली में होते हैं। नर्तक गहनों से सजे होते हैं, और विशेष रूप से उनके सिर पर ताज होता है, जो धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में उपयोग किया जाता है।
-
विविध शैलियाँ और नृत्य रूप:
सत्रिया में नृत्य के कई रूप होते हैं, जैसे:-
भरपेट: यह नृत्य का मुख्य रूप है, जो विशेष रूप से धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है।
-
झुला (Jhulana): यह एक लयबद्ध नृत्य रूप है, जिसमें कृष्ण और राधा की झूला झूलने की लीलाओं को प्रस्तुत किया जाता है।
-
नृत्य नाटक: इसमें कथाओं के माध्यम से अभिनय और नृत्य दोनों का समावेश होता है।
-
-
सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व:
सत्रिया नृत्य असम की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है और यह न केवल एक कला रूप है, बल्कि समाज और संस्कृति के प्रति आध्यात्मिकता और आस्थाएँ व्यक्त करता है। यह नृत्य आस-पास के समुदायों के लिए एकजुटता और धार्मिक भावनाओं का भी प्रतीक है।
0 Comments