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शास्त्रीय नृत्य (Shastriya Dance)  




भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये नृत्य रूप प्राचीन ग्रंथों, विशेषकर नाट्य शास्त्र पर आधारित होते हैं और इनका गहरा संबंध धर्म, संगीत, अभिनय और भाव-भंगिमा से होता है।

शास्त्रीय नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):

  1. संगीत, ताल और राग:
    शास्त्रीय नृत्य संगीत के साथ गहरे रूप से जुड़ा होता है, जिसमें राग (melody) और ताल (rhythm) का उपयोग होता है। हर नृत्य शैली में अलग-अलग ताल और राग होते हैं, जो नृत्य के भावों को प्रकट करते हैं।

  2. हस्त मुद्राएँ (Mudras):
    शास्त्रीय नृत्य में नर्तक हस्तकला (hand gestures) का प्रयोग करते हैं, जिसे अंगिका कहा जाता है। विभिन्न हस्त मुद्राएँ नृत्य के कथ्य को व्यक्त करने के लिए काम आती हैं। ये मुद्राएँ देवी-देवताओं के प्रतीक या भावनाओं को व्यक्त करने में मदद करती हैं।

  3. अभिनय (Abhinaya):
    शास्त्रीय नृत्य में अभिनय की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नर्तक अपने चेहरे के भाव (expressions), आंखों के हाव-भाव, और शरीर की मुद्रा से कथाएँ और भावनाएँ व्यक्त करते हैं। विशेष रूप से भाव और अभिनय (Abhinaya) नृत्य की कला में अहम होते हैं।

  4. सौम्यता और संतुलन (Grace & Balance):
    शास्त्रीय नृत्य में सौम्यता और संतुलन पर खास ध्यान दिया जाता है। नर्तक की शारीरिक स्थिति, मुद्राएँ, और नृत्य की गति बहुत ही नियंत्रित होती हैं, जिससे एक अद्वितीय सौंदर्य का निर्माण होता है।

  5. पारंपरिक और धार्मिक कथाएँ:
    शास्त्रीय नृत्य की प्रमुख विशेषता यह है कि यह धार्मिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित होता है। नृत्य के द्वारा भगवान की लीलाएँ, महाकाव्य कथाएँ और धार्मिक शिक्षाएँ प्रस्तुत की जाती हैं।

  6. संगठित संरचना:
    शास्त्रीय नृत्य में नृत्य की संरचना चार प्रमुख हिस्सों में बटी होती है:

    • Alarippu: एक प्रारंभिक अभ्यास जिसमें शारीरिक लचीलापन बढ़ाया जाता है।

    • Jatiswaram: नृत्य का एक शुद्ध संगीतात्मक हिस्सा।

    • Varnam: मुख्य नृत्य प्रदर्शन जिसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का सम्मिलन होता है।

    • Tillana: नृत्य का एक तेज़ और आकर्षक हिस्सा, जो खत्म होने के करीब होता है।

  7. पोशाक और आभूषण:
    शास्त्रीय नृत्य में कलाकारों की पोशाक बहुत ही विशिष्ट होती है। पारंपरिक कपड़े, विशेष आभूषण और श्रृंगार नृत्य के सौंदर्य में चार चांद लगा देते हैं। प्रत्येक नृत्य शैली की अपनी पारंपरिक पोशाक होती है, जो कलाकार के व्यक्तित्व और कला को और भी आकर्षक बनाती है।

  8. स्थानीय परंपराएँ और शैलियाँ:
    भारत में अलग-अलग क्षेत्रीय शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ हैं, जिनमें हर क्षेत्र की संस्कृति और इतिहास की झलक मिलती है। 

शास्त्रीय नृत्य के महत्व:
  • सांस्कृतिक धरोहर: शास्त्रीय नृत्य भारतीय संस्कृति और परंपराओं की जीवित मिसाल है, जो न केवल कला का रूप है, बल्कि भारतीय समाज, धार्मिकता, और दर्शन का गहरा संकेत भी है।

  • आध्यात्मिक अभिव्यक्ति: यह नृत्य कला ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में उपयोग होती है, खासकर मंदिरों और धार्मिक अनुष्ठानों में।

  • शारीरिक और मानसिक लाभ: शास्त्रीय नृत्य शरीर को लचीला और सशक्त बनाता है, साथ ही मानसिक शांति और एकाग्रता को बढ़ावा देता है।

भारत में मान्यता प्राप्त प्रमुख 8 शास्त्रीय नृत्य रूप हैं:

  1. भरतनाट्यम (Bharatanatyam) – तमिलनाडु से

  2. कथक (Kathak) – उत्तर भारत से

  3. ओडिसी (Odissi) – ओडिशा से

  4. मोहिनीअट्टम (Mohiniyattam) – केरल से

  5. कुचिपुड़ी (Kuchipudi) – आंध्र प्रदेश से

  6. कथकली (Kathakali) – केरल से

  7. सत्रिया (Sattriya) – असम से

  8. मणिपुरी (Manipuri) – मणिपुर से

भरतनाट्यम (Bharatanatyam)

भारत का सबसे प्राचीन और प्रमुख शास्त्रीय नृत्य रूप माना जाता है। यह मुख्य रूप से तमिलनाडु राज्य में उत्पन्न हुआ और पहले इसे मंदिरों में देवदासियों द्वारा भगवान की पूजा के रूप में प्रस्तुत किया जाता था।

भरतनाट्यम की विशेषताएँ (Visheshtayein):

  1. प्राचीनता और धार्मिकता:
    यह नृत्य देवी-देवताओं की कथाओं को प्रस्तुत करता है। इसे भक्तिपूर्ण नृत्य माना जाता है।

  2. त्रिक (Bha-Ra-Ta):
    इसका नाम 'Bharat' शब्द से बना है:

    • Bha = भाव (Expression)

    • Ra = राग (Melody)

    • Ta = ताल (Rhythm)

  3. अभिनय पर जोर:
    चेहरे के भावों और आंखों की मुद्राओं से कहानी सुनाई जाती है।

  4. हस्त मुद्राएं:
    हाथ की मुद्राओं (मुद्राएं) से प्रतीकात्मक अर्थ प्रकट किए जाते हैं।

  5. स्थिर और नियंत्रित अंग संचालन:
    इसमें शरीर की भंगिमा बहुत नियंत्रित और संतुलित होती है।

  6. पारंपरिक पोशाक और आभूषण:
    रंग-बिरंगे रेशमी परिधान, पारंपरिक गहने, माथे पर टिकली, और आंखों का खास मेकअप।

  7. नाट्य शास्त्र पर आधारित:
    इसकी संरचना और प्रदर्शन पूरी तरह भरत मुनि के नाट्य शास्त्र पर आधारित है।


प्रसिद्ध भरतनाट्यम कलाकार (Pramukh Kalakar):

  1. रुक्मिणी देवी अरुंडेल – भरतनाट्यम को मंच पर पुनर्जीवित करने में अग्रणी।

  2. यामिनी कृष्णमूर्ति – प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्यांगना, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुति दी।

  3. मृणालिनी साराभाई – नृत्य, नाटक और संस्कृति की महान प्रतिनिधि।

  4. मलविका सारुकाई – समकालीन शैली के साथ पारंपरिक भरतनाट्यम प्रस्तुत करने वाली नृत्यांगना।

  5. बिरजू महाराज – यद्यपि वे कथक कलाकार थे, पर भरतनाट्यम के प्रचार में भी योगदान दिया।

कथक (Kathak)

भारत का एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य रूप है, जिसकी उत्पत्ति उत्तर भारत में हुई थी। "कथक" शब्द "कथा कहने वाला" से लिया गया है — यानी जो नृत्य और भावों के माध्यम से कहानी कहे।

कथक की विशेषताएँ (Visheshtayein):

  1. कथा-प्रस्तुति (Storytelling):
    कथक में कहानी सुनाने की परंपरा है — खासकर रामायण, महाभारत, और कृष्ण लीला की कथाएं।

  2. चक्कर (Pirouettes):
    कथक में सबसे प्रसिद्ध तकनीक है – तेज गति से घूमना। यह इसकी पहचान है।

  3. घुंघरू (पायल):
    कथक नर्तक घुंघरू बांधते हैं, जिससे हर कदम की लय सुनाई देती है।

  4. ताल और लय (Rhythm):
    कथक में तालों का जादू होता है — बहुत कठिन और सटीक लय में नृत्य होता है।

  5. अभिनय और भाव (Expression):
    चेहरे के भाव और आंखों से संवाद करना, विशेष रूप से कृष्ण राधा की लीलाओं में।

  6. हिंदू-मुस्लिम प्रभाव:
    यह एकमात्र शास्त्रीय नृत्य है जिसमें मुगल दरबार का भी प्रभाव है, इसलिए इसमें गायन और तबले का इस्तेमाल बहुत होता है।

  7. तीन घराने (Styles):

    • लखनऊ घराना

    • जयपुर घराना

    • बनारस घराना
      हर घराने की अपनी खासियत होती है – कोई अभिनय में श्रेष्ठ है तो कोई तालों में।

प्रसिद्ध कथक कलाकार (Pramukh Kalakar):

  1. पंडित बिरजू महाराज – कथक के सबसे महान कलाकार, लखनऊ घराने से।

  2. शंभू महाराज – बिरजू जी के गुरु और कथक को मंचीय रूप देने वाले महान कलाकार।

  3. सोनाल मानसिंह – प्रसिद्ध नृत्यांगना, जिन्होंने कथक और ओडिसी दोनों में महारत हासिल की।

  4. शोवना नारायण – समकालीन कथक की प्रमुख कलाकार।

  5. माया राव – कर्नाटक की पहली कथक नृत्यांगना, जिन्होंने इसे दक्षिण भारत में लोकप्रिय किया।

मणिपुरी नृत्य (Manipuri Dance)

भारत का एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य रूप है, जिसकी उत्पत्ति मणिपुर राज्य में हुई। यह नृत्य अपने कोमलता, भक्ति भावना और सौम्य भाव-भंगिमाओं के लिए प्रसिद्ध है।


मणिपुरी नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):

  1. भक्ति प्रधान नृत्य:
    यह नृत्य रूप विशेष रूप से राधा-कृष्ण की लीलाओं और वैष्णव भक्ति पर आधारित होता है।

  2. कोमल और लयबद्ध गति:
    इसमें भरतनाट्यम या कथक की तरह तीव्र गति या चटख भंगिमाएं नहीं होतीं। इसकी चाल बहुत मृदुल, गोलाकार और सौम्य होती है।

  3. मुख भाव (Abhinay) का सूक्ष्म प्रयोग:
    चेहरे के हाव-भाव बहुत नरम और संयमित होते हैं। आंखों का नाटक बहुत नाजुक ढंग से होता है।

  4. विशेष पोशाक:
    स्त्रियों की पोशाक बहुत सुंदर और अनोखी होती है — जिसे "कुमीन" कहा जाता है। इसमें बेलनाकार घाघरा, पारदर्शी घूंघट और गहनों का खास संयोजन होता है।

  5. नृत्य और संगीत का मेल:
    इसमें मृदंग, पखावज और मंजीरा जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है। गायन भी बहुत ही भक्तिपूर्ण और शुद्ध होता है।

  6. रासलीला की प्रमुखता:
    मणिपुरी नृत्य में रासलीला को बहुत महत्व दिया जाता है, जिसमें कृष्ण और गोपियों की लीलाएं दर्शाई जाती हैं।

  7. संघटनात्मक समूह नृत्य:
    यह नृत्य अक्सर समूहों में किया जाता है, विशेषकर रासलीला प्रस्तुतियों में।


👩‍🎤 प्रसिद्ध मणिपुरी कलाकार (Pramukh Kalakar):

  1. राजकुमारी बाला देवी चौधुरी – मणिपुरी नृत्य को मंच पर लोकप्रिय बनाने वाली अग्रणी कलाकार।

  2. डॉ. सिंहजीत सिंह – प्रसिद्ध नर्तक और मणिपुरी नृत्य शिक्षक।

  3. चुकीन देवी – समर्पित नृत्यांगना जिन्होंने रासलीला प्रस्तुतियों में विशिष्ट पहचान बनाई।

ओडिसी नृत्य (Odissi Dance)

भारत का एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है, जिसकी उत्पत्ति ओडिशा राज्य से हुई है। यह नृत्य रूप अपनी सुखद, लयबद्ध गति, अद्भुत मुद्राओं, और सौम्यता के लिए प्रसिद्ध है। ओडिसी नृत्य की विशेषताएँ न केवल इसकी सुंदरता में निहित हैं, बल्कि इसके धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व में भी गहरी जड़ें हैं।


ओडिसी नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):

  1. प्राचीन परंपरा:
    ओडिसी नृत्य की जड़ें प्राचीन मंदिर नृत्य परंपराओं में हैं। यह नृत्य भगवान विष्णु और अन्य देवताओं की पूजा के रूप में प्रस्तुत किया जाता था।

  2. त्रिवटि मुद्रा (Tribhanga):
    ओडिसी नृत्य की सबसे प्रसिद्ध विशेषता त्रिवटि मुद्रा है, जिसमें नर्तकी अपने शरीर को तीन जगहों पर मोड़ती है—गर्दन, कमर, और पैर। यह मुद्रा नृत्य को सुंदरता और संतुलन देती है।

  3. अलंकृत मुद्राएँ (Mudras):
    ओडिसी में हस्त मुद्राओं (मुद्राओं) का महत्वपूर्ण प्रयोग होता है, जिन्हें "अंगिका" के नाम से जाना जाता है। इन मुद्राओं से भगवान की कथाएँ और भावनाएँ व्यक्त की जाती हैं।

  4. नृत्य और संगीत का सामंजस्य:
    ओडिसी में मृदंग (पारंपरिक ओडिशी ढोल), झांझ, और सांगीतिक वाद्य जैसे सारंगी का प्रयोग होता है। इसके संगीत में राग और ताल का गहरा संबंध है।

  5. रासलीला और भक्तिपूर्ण प्रदर्शन:
    ओडिसी नृत्य में कृष्ण-राधा की लीलाएँ और भगवान विष्णु के विभिन्न रूपों की कथाएँ प्रदर्शित की जाती हैं। नर्तक रासलीला और नृत्य नाटिका के माध्यम से धार्मिक कथाओं को प्रस्तुत करते हैं।

  6. संगठित नृत्य रूप (Group and Solo Performance):
    ओडिसी में समूह नृत्य और एकल नृत्य दोनों की परंपरा है। विशेष रूप से महाभारत और रामायण की घटनाओं को नृत्य के माध्यम से दर्शाया जाता है।

  7. लय और गति:
    ओडिसी की नृत्य शैली में लयबद्धता और गति का महत्वपूर्ण योगदान है, जहां धीमी, मध्यम और तेज गति का संतुलन होता है।


👩‍🎤 प्रसिद्ध ओडिसी कलाकार (Pramukh Kalakar):

  1. कलावती देवी – ओडिसी की प्रसिद्ध नर्तकी, जिन्होंने ओडिशी नृत्य को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचान दिलाई।

  2. सोनल मानसिंह – प्रसिद्ध नृत्यांगना, जिन्होंने ओडिसी नृत्य को व्यापक रूप से लोकप्रिय बनाया।

  3. मृणालिनी साराभाई – ओडिसी नृत्य की महान कलाकार, जिन्होंने ओडिशी नृत्य को भारत और विदेशों में प्रस्तुत किया।

  4. श्रीमती कुमुदिनी लक्ष्मी – ओडिसी नृत्य की प्रमुख विद्वान और गुरु, जिनकी नृत्य शैली को सभी ने सराहा।

कुचिपुड़ी नृत्य (Kuchipudi Dance)

भारत के शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक है, जो आंध्र प्रदेश राज्य से उत्पन्न हुआ है। यह नृत्य अपनी विशेष भाव-भंगिमा, गति और लय के कारण बहुत प्रसिद्ध है। कुचिपुड़ी का प्रदर्शन नृत्य, अभिनय, और संगीत का संगम होता है, और इसमें धार्मिक कथाएँ और संस्कृति को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जाता है।


कुचिपुड़ी नृत्य की विशेषताएँ (Visheshtayein):

  1. अभिनय का महत्त्व (Abhinaya):
    कुचिपुड़ी में नर्तक को केवल नृत्य ही नहीं, बल्कि अभिनय भी करना होता है। इसमें चेहरे के भाव, आँखों की मुद्राएँ और शरीर की हलचलें महत्वपूर्ण होती हैं। यह नृत्य कथा को बहुत ही प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करता है, जैसे भगवान की लीलाएँ या शास्त्रों की घटनाएँ।

  2. "तलम" (Talam):
    कुचिपुड़ी में ताल और लय पर बहुत ध्यान दिया जाता है। नर्तक तेज गति से पैरों के साथ ताल को सेट करने में माहिर होते हैं, जिससे नृत्य में एक अद्वितीय लयबद्धता उत्पन्न होती है।

  3. मंच पर पदार्पण (Entrance) और पूजन:
    कुचिपुड़ी नृत्य का एक अद्वितीय पहलू इसका मंच पर प्रवेश है, जिसमें नर्तक पहले पूजा करता है और फिर मंच पर अपने नृत्य की शुरुआत करता है। इस पूजा का उद्देश्य नृत्य को ईश्वर की भक्ति के रूप में प्रस्तुत करना होता है।

  4. भव्यता और गति (Grace & Speed):
    कुचिपुड़ी नृत्य में मुलायम और कोमल गति के साथ-साथ तेज गति के तत्व भी होते हैं, जो इसे बहुत आकर्षक बनाते हैं। विशेष रूप से मुद्राएँ (हस्तकला) और अंग संचालन का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता है।

  5. मंच पर संवाद (Dialogue or Dialogue-based Acting):
    कुचिपुड़ी में संवादों के माध्यम से नृत्य की कथा को चित्रित किया जाता है। इस तरह के संवाद अक्सर वचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में होते हैं, जो नृत्य के साथ मेल खाते हैं।

  6. नृत्य रूप और संगीत:
    कुचिपुड़ी में कर्णाटिक संगीत का प्रमुख योगदान होता है। इसमें मृदंगम, वीणा, चंग, तबला, और अन्य वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है। यह संगीत नृत्य को गति और जीवन देता है।

  7. नृत्य में त्रिक (Three-fold) का महत्व:
    कुचिपुड़ी नृत्य में तीन महत्वपूर्ण तत्व होते हैं:

    • नृत्य (Dance): शारीरिक गति और लय

    • गीत (Song): संगीत और काव्य

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